'यही कहानी थी पिया की? यह कथन है या सवाल? नहीं, कथन नहीं हो सकता। ऐसे खत्म नहीं हो सकती यह कहानी! ...शायद जिंदगी का सच यही है। कुछ भी नहीं है वहां पर हम बहुत कुछ भरकर उसी को सच मान बैठते हैं। ...पिया के मन में विरक्ति-सी हुई। सच क्या हस्ती है हमारी? कबीर के ही लफ्जों में पानी के बुलबुले जैसी!' ये पंक्तियां 'पानी केरा बुदबुदा' उपन्यास का सारांश सरीखी हैं। सुप्रसिद्ध लेखिका सुषम बेदी का यह नवीनतम उपन्यास-जीवन, प्रेम, विवाह, सुख, विराग आदि शब्दों को समकालीन संदर्भ देते हुए लिखा गया है। उपन्यास विदेशी पृष्ठभूमि में लिखा गया है, लेकिन इसकी बेचैनियां सार्वदेशिक हैं। पिया इस उपन्यास का केंद्रीय चरित्र है। उसका वैवाहिक जीवन, विवाह विच्छेद, तलाक के बाद प्रेम को फिर विवाह में बदलने की आकांक्षा, पुत्र और उसका पारिवारिक परिदृश्य-ऐसी अनेक बातों से मिलकर इस उपन्यास की कथावस्तु निर्मित हुई है। इस निर्मिति में निशांत, अनुराग, दामोदर, रोहन आदि बहुत दिलचस्प तरीके से शामिल हैं। पिया के लिए सेक्स कोई दुराग्रह नहीं है, पर वह 'साथ' चाहती है। विवाह इसीलिए उसे आश्वस्त और आकर्षित करता है। लेकिन नियति या मानव स्वभाव का निर्णय कुछ दूसरा है। सुषम बेदी कथानक को गतिशील रखते हुए जीवन की मूलभूत चिंताओं पर बात करती हैं। स्वाभाविक रूप से स्त्री-विमर्श भी आता है। पिया के बारे में लेखिका का कथन है, 'अनुराग ने उसके फूलों की गुलाबी रंगत ही देखी थी। पर वहां खून के थक्के भी जमे हुए थे।' ऐसी जाने कितनी विडंबनाएं इस उपन्यास को स्त्री-जीवन का मार्मिक दस्तावेज बना देती हैं। सुषम बेदी का लंबा जीवनानुभव और जनमनोविज्ञान समझने का ढंग भाषा के अनूठे स्वरूप में व्यक्त हुआ है। बेहद पठनीय और विचारोत्तेजक उपन्यास।